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सूखे सफ़ेद गुलाब!

सूखे सफ़ेद गुलाब! सदियों पहले अस्त हुई मेरे मुख की हँसी को  दिल के अहसास को  मेरे भाव को क्या दिनकर लौटा पाएगा ? मेरे अंंतर मन की  मरती हुई मेरी चेतना को  मेरी इच्छा को  मेरे सपनों को  क्या ये फूल खिला पाएगा ? एक विशाल-विरान रेगिस्तान से जीवन को  एक सुखी बंजर जमीन को  नीरस‌ दरख़्त को क्या ये सावन भिगा पाएगा ? मेरे शरीर को नौचते श्रापित मनुष्य को  सिसकती, बेबस सांसों को  आँखों पे पट्टी बाँधे मूकदर्शक को क्या समय सब भुला पाएगा ? हे कण-कण में बसने वाले! अपने इस अन्श को मेरी माँ की कोख को  मेरे पिता के लाड को क्या इंसाफ दिला पाएगा ?