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मुक्तक

1 कभी मौसम कभी कुदरत कहर बनकर सताती है कभी  सरकार  के  कर्जे  कभी  कीमत  रुलाती है लहलहाती   महकती   बालियाँ भं  डार  भर  देती कहानी   फिर  हमें  होरी  कभी  संकर  बनाती  है।। 2 सुबह की  शुरुआत सरगी,  प्रीत के त्यौहार में  दुल्हन  बनी आज  सजनी, सज रही श्रृंगार में हर सुहागन की दुआएं, हर जनम का साथ हो  चांद    बैठा  चांदनी  में,  चांद   के  दीदार  में।। 3 आज आज़माने दो हर सितम जमाने को नूर आ गया मुहब्बत की समा जलाने को रूह को  इजाजत है  आज रूठ जाने की इश्क  हाजिर  हुआ है दो जहाँ मनाने को।। 4 हाथ जो  तुम्हारा मैं  थाम कर  चली होती जिन्दगी कुछ अलग  अंदाज में ढली होती रात   चाँदनी  की   आगोश  में  गुनगुनाती सुबह ओश में भीगी खिल रही कली होती।। 5 इश्क कब किसी से वजाहत मांगता है आंखों   में  ज़रा   मोहब्बत  मांगता...

नन्ही परी

नन्ही परी, गुड़ की डली, चाशनी तू प्यार की। रंगों भरी, नन्ही कली, खुशियां की बहार सी। चन्दा सा मुखड़ा, दिल का तू टुकड़ा। मेरे आंगन की, जन्नत का टुकड़ा। तेरी हंसी, मेरी खुशी,  बसंत की बयार सी। कोयल सी बोली, ख्वाबों की डोली। ममता की मूरत, सूरत की भोली। स्वाति की बूंद, गुनगुनी धूप, सावन की बौछार सी। नन्ही परी, गुड़ की डली, चाशनी तू प्यार की। रंगों भरी, नन्ही कली, खुशियां की बहार सी।

जिन्दगी के गीत गुनगुनाता चला गया!

जिन्दगी के गीत गुनगुनाता चला गया। हर रास्ते से हाथ मिलाता चला गया। जिन्दगी की कशमकश को नादानी में  हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया। मुश्किल हालात से, जीत और हार से हर खौफ से आँख मिलाता चला गया। कहीं नफरतें हैं तो कहीं बेरुखी है हर किसी से प्यार निभाता चला गया। ख़ुशी के झौंके है कहीं गम के साये  मुसाफिर हूं बस मुस्कुराता चला गया।

बांसुरी चली आओ राग ये बुलाते हैं!

इश्क की चलो कोई रस्म हम निभाते हैं। जिन्दगी चली आओ ख्वाब ये बुलाते हैं। प्रीत के बड़े नाजुक डोर से बधे वादे, सुर्ख सांझ साहिल पे आशियां बनाते हैं। अनकहे अनसुने से एहसास आँखों के बात वो अधूरे से रात-दिन सताते हैं। और कुछ सिवा तेरे चाहता नहीं है दिल गूजरे हुए लम्हे याद बहुत आते हैं। बेसुरे अधूरे, सुर-ताल शब्द खाली से बाँसुरी चली आओ राग ये बुलाते हैं।

मिट्टी

ना काटती हूँ, ना जलाती  हूँ, ना सुखाती हूँ  ना मिटाती  हूँ, किसी से ना करती हूँ भेदभाव मैं मिट्टी हूँ मिट्टी बनाती हूँ। धूप, जल, वायु, मिट्टी मिलते हैं, नूतन सृजन आरम्भ करते हैं, पशु-पक्षी, वनस्पति, मनुष्य देह, वस्त्र अलग-अलग पहनाती हूँ। सौ बार बनती सौ बार मिटती,  सत्य, साक्षात हूँ अविनश्वर हूँ रोती, हंसती,झुमती, थिरकती मौसमों संग चित्र बनाती हूँ।

सपने

ख्वाब मेरे आसमां तक यूं घुमाते हैं मुझे। बादलों में बीजुरी जैसे छुपाते हैं मुझे। आसमां से आ गिरे फिर सीढ़ियां पकड़े हुए, एक तारे की कहानी फिर सुनाते हैं मुझे। रंग बागों से समेटे आ खड़े हैं द्वार पर, जिन्दगी के रंग बनकर फिर लुभाते हैं मुझे। हार में भी दीप जैसे जगमगाते हौंसले,  नित्य स्वप्न सुधा बनकर सदा जगाते हैं मुझे।